संत रैदास व बुद्ध धर्म


     बुद्ध धर्म के बदलते आयाम
         
       गुरु रैदास जी को सम्पूर्ण भारत में आदरसहित याद किया जाता है | पंजाब प्रान्त में सिक्ख्पंथ के गुरुनानक उनका सम्मान करते थे काशी के वासी संत कबीर नें उन्हें “साधुन मा रैदास संत है” कहा भक्तमाल ग्रन्थ में गुरूजी को संतशिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया राजस्थान के ठाकुरों ने जिनका लोहा माना | राणा सांगा की बड़ी पुत्र वधु उनसे ज्ञान ध्यान की दीक्षा ली चित्तोड़ की महारानी झाली ने भी जिन्हें गुरु धारण किया | कासी के ब्राह्मण प्रधान जिनकी शरण में आकर दंडवत (प्रणाम नमन ) किया करते थे इन सब से स्पस्ट होता है की गुरु रविदास में कुछ तो खासियत रही होगी | वर्ना यूँ ही संत कबीर साधो (संतों ) में खास संत न कह देते | भक्तमाल ग्रन्थ में उन्हें संतों के सिरताज सिर की मणि नहीं कहा जाता | चित्तोड़ की रानी झाली और मीरा किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे चमार व्यक्ति को ऐसे ही गुरु धारण नहीं कर लेती | इन सभी का उत्तर यह है की गुरु रविदास जी द्वारा रचित काव्य का अवलोकन और चिंतन करने पर विदित होता है की संत जी श्रमण-विचारधारा के उपदेशक विचारक थे | संत शिरोमणि गुरु रैदास ने वो ही समझया जो तथागत बुद्ध ने कहा और बुद्ध ने जो किया, वाही गुरु रैदास जी ने किया|
         स देश में जितने भी क्षत्रिय राजा थे, सभी मनुस्मृति के अनुसार राज करते थे | उनके लिए गुणहीन ब्राह्मण भी सर्वोच्च व पूजनीय था | विद्वान शुद्र भी तिरस्कार का पात्र था | शुद्र जनता धन, शिक्षा और जन्मसिद्ध अधिकारों से वंचित थे | नारी पुरुषों के पैरों कई जूती समझी जाती थी | घर से घेर तक केवल उसका गुलामी का कार्य था | सन ई.पु. 528 में सिद्धार्थ (बुद्ध) ने धारा के विपरीत कार्य करने का उपदेश दिया | प्रथम उपदेश काशी (वाराणसी) के समीप सारनाथ में 5 भिक्खुओं को दिया | इन्ही पाँचों से संघ का प्रचलन आरम्भ हुआ | प्रथम वर्षावास की समाप्ति तक भिक्खुओं की संख्या 60 हो गई उरुवेला जाते समय 30 थी और उरुवेला में पहुँचने पर 1000 भिक्खुओं की बढ़ोतरी हुई बाद में संजय परिव्राजक के 250 शिष्य भी संघ में सम्मलित हो गए | इस प्रकार भिक्खुसंघ की संख्या 1345 हो गई थी | बहुजनों के हित के लिए बहुजनों के सुख के लिए, लोक पर दया करने के लिए, देवताओं और मनुष्य (स्त्रियों) के प्रयोजन के लिए लोक विचरण करो | किन्तु एक साथ दो मत जाओ | संसार में जो कुच्छ भी है सभी अनित्य है (विनिष्ट होने वाला है) सदा एक समान नहीं रहने वाला है | सभी तत्व उत्पत्ति, परवर्तन और विनाश तीन क्षणों में विभक्त है | तथा ये क्षण – क्षण भंगुर हो रहा है, ये सड़कर भस्म होंने वाला है| प्रत्येक जीवित को मरना है , जीवन मुस्किल से बना रहता है | भगवान् बुद्ध ने समझाया – स्त्रियों की प्रज्ञा दो अंगुल होती है , ऐसा कहना नारी का अपमान करना है | वे बड़ी बुद्धिमती होती है | स्त्रियाँ विलक्षणा व विद्धवान होती हैं | सभी क्षेत्रों में पुरुष ही विद्धवान नहीं होते हैं सुक्ष्मविचार करने वाली स्त्रियाँ भी पंडिता होती हैं | उपदेश दिया है की लड़कियों की बचपन में शादी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि छोटी आयु की कन्याओं का विवाह , गृहस्थ के पतन का कारण होता है | उन्होंने पुरुष को एक पत्निवृत रहें का परमर्श प्रदान किया | बुद्ध ने नारियों को भी सदाचारिणी रहकर धर्मपालन करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत करने की सलाह दी |
         थागत गौतम बुद्ध ने सदैव अच्छे कार्य में तत्पर रहने की शिक्षा दी | कथनी में लगकर कार्य करो बहुत बोलने से कोई धर्म धर नहीं होता | बुद्ध ने कहा जिस (अच्छे) कार्य को करना है उसे आज ही कर डालो , कौन जाने की कल  मृत्यु हो जाये ? जो हिंसा करता है , जो अहित वचन बोलता है , वस्तु को वस्तु मालिक को दिए बिना लेता है जो पराई स्त्री से संसर्ग करता है , जो मधपान करते हैं , वह इसी लोक में अपनी जड़ें खुद ही खोदता है | लोग उस समय अक्सर जाती पूछा करतें थे | तथागत बुद्ध ने इस सम्बन्ध में उपदेश दिया – किसी की जाती मत पूछो, पूछना है तो उसका आचरण पूछो | जाति भेद तो बनावटी है किसी भी कुल से उत्पन किसी भी प्रकार जन्मजात विभिनता नहीं है | सभी व्यक्ति समान होते हैं , जन्म से न कोई नीच होता है और न ब्राह्मण | कर्म से नीच और महान बनते हैं | नीच कुल वाले धैर्यवान और मुनिवर होते हैं | भगवान् बुद्ध ने एक बार जातिभेद का विरोध करते हुए कहा था – ब्राह्मणी माता की योनी से उत्पन्न होने के कारण मैं किसी को ब्राहमण नहीं कहता | आश्वलायन ! ब्राह्मणों की ब्रह्मणियांभी (सभी की तरह ऋतुमती होती हैं , गर्भिणी होती हैं, प्रसव करती हैं, दूध पिलाती हुई देखि जाती हैं, फिर भी वे क्यों ऐसा कहते हैं ब्राह्मण श्रेष्ट हैं | इस प्रकार अनेक लोक कल्याणी शिक्षाओं को प्राप्त करते हुए 80 वर्ष 3 की आयु में कुशीनगर में बैशाख पूर्णिमा के दिन महापारिनिर्वाण को प्राप्त हुए |

                                                       मन्त्र-तंत्रयान   
          हायान में आगे चलकर लोक-कल्याण की भावना से तंत्र-मन्त्र, जादू टोना आदि बातें धीरे-धीरे अलोकिक चमत्कार की भांति प्रवेश कर गई | फिर भगवान् बुद्ध को भी अलौकिक मान लिया गया | चोथी-पांचवीं सदी में रहस्यवाद जन्म लेता है | इसमें गौतम बुद्ध को रहष्य मानकर समझया गया , यहीं से तांत्रिक विचारों की शुरुआत मानीजा सकती है | विंटर नित्स के अनुसार 5 वीं सदी तक बुद्ध अवलोकितेश्वर के रूप में पूजित होने लगे | आघ आचार्य के मतानुसार तांत्रिक तत्व छठी शदाब्दी पूर्व महायान में प्रविष्ट हो चुके थे | डॉ. फर्कुहर और डॉ. विंटरनित्स के अनुसार इस सम्बन्ध में ग्रंथों की रचना सातवीं शताब्दी में हो जाती है |
         स प्रकार अब लम्बे-लम्बे सूत्रों के स्थान पर छोटे-छोटे सूत्रों की रचना की गई और मन्त्र भी धारणी के रूप में बनाये गए | धारणी का रूप लघु होता है | धारणीयों ने लघु मन्त्रों का रूप धारण कर लिया | मन्त्रों उपयोग हेतु कवच आदि भी प्रचलित हुए | इन मन्त्रों को धातु, ताडपत्र या भोजपत्र पर लिखा जाता था | मन्त्र साधना के लिए मन्त्र-तंत्र के विधान भी रचे गए | इस साधना का स्थान , मंजुश्री मूलकल्प ग्रन्थ पृ. 88 पर श्री पर्वत पर धान्य कटक पर बतलाया है और कहा गया की वहीँ मन्त्र-तंत्र की सिद्धि शिघ्र होती है | इन मन्त्रों से महायानी बौध भिक्खु रोग नाश और मंगल किया करते थे | इस मंत्रयान का काल 400 ई. से 700 ई. था |

                                        वज्रयान
         ज्रयान का उदय भी दक्षिण के श्री पर्वत पर ही हुआ | वज्र शब्द के अनेक अर्थ हैं | किन्तु यहाँ वज्र का अर्थ शून्यता से लिया गया है | सम्यक साधना का प्रधान मार्ग वज्र साधना को ही बतलाया | तथागत को भी अब वज्रिनाथ कहा जाने लगा | संभवत: वर्तमान बद्रीनाथ धाम , उस समय वज्र्यानियों का साधना धाम रहा था | इस साधना में तिल,यव,आसन,ध्वजपात्र, अक्षत आवश्यक सामन लिए गए | वज्रयान में अब मध , मन्त्र, हठयोग और स्त्री मुख्य रूप से सम्मलित हो गए | इसमें शांति वशीकरण स्तम्भन , विध्वेषण , उच्चाटन , मारण आदि विधान बनाये गए | वज्रयानी घोर तंत्रिकता में पड़कर बुद्ध की मूल शिक्षाओं से दूर  हो गए | पंडित राहुल सांकृत्यायन वज्रयान का काल 800 ई. से -1200 ई. मानते हैं कुछ विद्वान इसकी सुरुआत 8 वीं.सदी मानते हैं कुछ का मानना है की 7वीं सदी के बाद ही खुलेआम वज्रयान का प्रचार होने लगता है |
                                
                                सहजयानी सिद्धाचार्य
            हजयान, वज्रयान का ही अंतिम रूप है |वज्रयान ही आगे आगे चलकर सहजयान के नाम जाना गया | डॉ. दासगुप्ता ने सहज को वज्रयान का उपनाम दिया वज्रयान में गुरुपद ही बुद्धपद था | सहज भावना को ही ऋजुमार्ग कहा गया | सहजयान के प्रवर्तक सिद्ध आचार्य थे |आदि सिद्ध का काल 768-807 ई. माना | इनकी संख्या 84 थी | प्रथम सिद्ध सहरपाद और अंतिम काल पाद थे |सहजयान कहता है यदि लोक में दुःख अधिक है , तो सुख का सार भी वहीँ है | लोक सहजानन्द से परिपूर्ण है , अत: नाचो, गाओ, विलसो | सहजयानी लौकिक सुख से वंचित रहकर साधना नहीं करना चाहते थे | ये सिद्ध पुरे वाममार्गी थे | इन्होने चीवर को धारण करना , शराब  पीना स्त्री समागम से वंचित रहना, हेय समझा और निम्न जातियों की स्त्रियों के साथ विचरण करने लगे | इनमें योगिनियाँ भी थी 12 वीं सदी में दिल्ली शहर की 64 योगनियाँ प्रसिद्द रही है | (दिल्ली की 64 योगनी बंगले के 52 वीर) ईस्वर अस्तित्व को भी बौद्ध सहजिया सिद्ध स्वीकार नहीं करते |
          ‘सिद्धों मानना है है की मन्त्र जाप, प्रदीप जलाना , तंत्र-मंत्र धारण करना विभ्रम उत्पन्न करता है | ब्राह्मण भी ऐसे ही होते हैं जैसे दुसरे होते हैं | यदि संस्कार से ब्राह्मण होता है, तो चंडाल को भी संस्कार दो, जिससे वह ब्राह्मण बने | यदि वेद पढने से ब्राह्मण होता है तो उन्हें भी वेद पढाओ|
      
                               नाथ पंथ और बुद्ध धर्म
       नाथ पंथ और सिद्ध पंथ 12 वीं सदी तक साथ साथ चलते रहे | किन्तु नाथ पंथ आज तक भी चल रहा है सिद्ध पंथ समाप्त हो गया | कुछ लोगों का इस सम्बन्ध में मत है की सिद्ध प्रछन्न नाथ पंथी थे | कुछ विद्वान का कथन है की नाथ संप्रदाय 84 सिद्धों में से निकला हुआ क्रन्तिकारी पंथ है | हम भी दुसरे मत से सहमत हैं क्योंकि उनकी वाणियों में निर्वाण, शून्यवाद और वज्रयान का बीज मिलेगा | हमारा मानना है की सिद्धों में कुछ एअसे दिद्ध थे , जो अपने नाम के साथ नाथ शब्द का प्रयोग करते थे |उपयुक्त समय आने पर उन्होंने अपना अलग संगठन बना लिया | हम देखते हैं की नाथ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ | एक तथागत के लिए और दुसरे बोधिप्राप्त भिक्खु के लिए | सिद्धों की वाणियों में उसे नाथ स्वरुप कहा गया, जिसका चित्त विस्फित हो जाता है जिसका मन निश्चल हो जाये | इससे स्पस्ट है की सिद्धों ने नाथ का प्रयोग तथागतवाची न करके स्थिर चित्त वाले योगी के लिए किया है| हीनयान में जो स्थिति स्थिर चित्त वाले योगी के लिए किया है | हीनयान में जो स्थिति अर्हत भिक्खु की थी, वाही सिद्धों में नाथ की मानी गई | अर्थात सिद्धि में रत सभी सिद्ध, सिद्धपा थे , किन्तु सिद्ध अर्हत हो जाता था वह स्वामी (गुरु) माना  जाता था | इस प्रकार स्वामी का पर्याय नाथ ही है |
          पने पिछले पृष्ठों पढ़ा की सिद्ध नारी भोगते थे और चमत्कार दिखाते थे | वे मदिरा पान करने लगे थे | उसके लिए जीवहिंसा करना व्यभिचार करना जघन्य कर्म न होकर सिद्धि प्राप्ति का मार्ग मान लिया गया | व्यभिचार की कोई सीमा नहीं रही | माता बहिन तक का विचार इन वज्रयानी सिद्धों त्याग दिया | इन्होने कहा था –वेश बदलकर श्रमण होना बेकार है | अत: सिद्धों में अर्हत हुए नाथ योगियों में जालंधर नाथ , कर्णरिपा आदि ने इन सभी विरोध करना आरम्भ किया |
        नागेन्द्रनाथ उपाध्याय मानते हैं की वज्रयान में गुरुपद बुद्ध पद ही है | लेकिन हम इस बात सहमत नहीं हैं, क्योंकि पहले बुद्ध धर्म (स्थिरवाद) में बुद्ध धम्म और त्रिशरणोंका ही प्रचलन था और आज भी है, किन्तु इन सहजयानी (वज्रयानी) बौद्ध सिद्धों ने बुद्ध से भी ऊपर गुरु की महत्ता सिद्ध की और चौथी शरण भी मान ली | ये चौथी शरण बुद्ध शरण से भी प्रथम गुरु शरणम् गच्छामि बोलने लगे | आज आज भी तिब्बत में यही प्रथा है यदि गुरु पद ही बुद्ध पद होता है , यदि बुद्ध को ही गुरु माना जाता तब अलग से और सबसे पहले गुरु (लां मां ) शरणम गच्छामि ही कहा जाता , बुद्धं शरणम् न कहना पड़ता | इससे सिद्ध होता है की गुरु पद बुद्ध पद नहीं था | अब बुद्ध पद से भी ऊपर माना गया था | महायानी (वज्रयान) में बुद्ध भगवान् थे और गुरु मार्गद्र्ष्टा  थे | भगवान् तक पहुचाने माध्यम गुरु ही था बुद्ध का ज्ञान गुरु कराता था , इसलिए गुरु बुध से भी बड़े हुए | तब वे बुद्ध से भी पहले स्मरणीय है | संत कबीर ने आगे चलकर वज्रयानी सिद्धों की इस बात को दोहराया , सिद्धों ने कहा धर्म के सूक्ष्म उपदेश गुरु के मुख से सुनने चाहियें , पोथी पढने से कुछ नहीं होता, गुरु बुद्ध से भी बड़ा है | जो गुरु कहे उसी क्षण करना चाहिए | या यूँ कहां जा सकता है की अब बुद्ध रहे ही नहीं वे निरंतर सर्वत्र विराजमान हैं , किन्तु दीखते नहीं | उनके उपदेशों को गुरु ही सुनाते हैं, बुद्ध बारे में गुरु ही बताते हैं , इस लिए वह प्रथम स्मरणीय हैं | सिद्धो ने कहा बुद्ध घट में निवास करते हैं | सिद्ध नरोपा आदि बुद्ध इसी प्रकार अनादी अमृत एवं सर्वज्ञ रूप में मानते हैं |
       न्होंने सिद्धों में सभी नाथों का एक जगह अलग संगठन बनाने का प्रयास किया , किन्तु वे सफल नहीं हुए | बाद में जब गोरख मछंदर नाथ का शिष्य हुआ , उसने भी सिद्धों में व्याप्त इन विकृतियों का घोर विरोध किया | गोरखनाथ ने मछन्दर नाथ , जालन्धर नाथ , कर्णरिपा , आदि को एकत्र कर नाथ पंथ नाम से अलग संगठन तैयार किया और गोरखनाथ इसमें सफल हुए | जो इस संगठन के आदि पुरुष आदि नाथ कहे जाते हैं | महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने जालंधर नाथ को आदि नाथ माना है | नाथ सम्प्रदाय अलग स्वरुप  9 वीं शताब्दी में होता है | नाथ संप्रदाय में आरम्भ से सहजयान की सारी प्रवृतियाँ थी किन्तु गोरखनाथ ने उनका संस्कार किया उन्होंने मैथुन और नारी का पूर्ण बहिस्कार किया | इन्होने सर्वप्रथम वेशभूषा काले रंग की तय की | एक स्थान पर न रहकर भ्रमण करना आरम्भ किया | केश बढ़ाकर दाढ़ी-मूंछ रखने लगे | मांगने का पात्र भी धारण कर लिया | गोरखनाथ की साधना का मूल स्वर शील , संयम , शुद्धतावादी था | उन्होंने तंत्रिकता का विरोध कर साधू और गृहस्थ दोनों की कुरूतियों को पचुर्ण कर दिया किन्तु वे नाथ संप्रदाय से पूर्णरूप से बहिस्कृत नहीं हो पाई | रामचंद्र शुक्ल ने कहा की गोरखनाथ का मूल भी बोद्ध धर्म है | नेपाली अनुश्रुति के अनुसार – मत्स्येन्द्र नाथ को गौतम बुद्ध का स्वरुप अवलोकीतेश्वर के अवतार के रूप में जाना जाता है | नाथ पंथी साधकों ने ज्ञान के उपदेशों को , सहज ग्राह्य बनाने में प्रतिक पद्धति का सहारा लिया उनमें कुछ इस प्रकार है – अदेखी , अलख , विनाणी , ब्रहा, सहज, सुरति, निर्वाण, निरंजन,आदि | ये सभी शब्द शून्य अर्थात बुद्धत्व के अर्थ में है |
     ससे स्पष्ट हुआ है किनाथ आचार्य बुद्ध धर्म का ही प्रचार कर रहें थे | किन्तु इन्हें ये न मालुम था जिन उपदेशों को वह कहते हैं , वे बुद्ध धर्म के हैं | यह संप्रदाय 12 वीं सदी तक सम्पूर्ण जोश-खरोश के साथ चलता रहा | इस प्रकार कहा जा सकता है की बुद्ध धर्म कही नहीं गया था , वह महायान से होता हुआ , सिद्ध व पंथों में घुल मिल गया था |


                                                  निर्गुण सम्प्रदाय
        निर्गुण संप्रदाय सिद्ध आचार्य और नाथ आचार्यों का समय अभी-अभी समाप्त हुआ था | हीनयान ने बुद्ध की पूजा वंदना आरम्भ कर दी थी और सिद्ध ततः नाथों ने उन्हें अलौकिक , निरंजन घट में रहने वाला मान लिया था | यही सगुण उपासना और निर्गुण उपासना का प्रचालन चला था | बंगाल से कश्मीर तक सौराष्ट्र से    नेपाल तक           बौद्ध वचनों की छाप अभी तक थी |उड़ीसा में जगन्नाथ बुद्ध स्वरुप मने जाते थे | जयदेव ने हरी को बुद्ध शारीर ही कहा | उत्तरप्रदेश अब (उत्तरांचल ) में बुद्ध को ही वज्री नाथ (बद्रीनाथ) मान लिया गया था | आज भी बद्रीनाथ उनकी स्मृति में स्थापित हैं | जयदेव ( 1169-1205 ) ई. लालदेई तथा संतवेणी तथा रामानंद सगुण उपासक थे नामदेव , पीपा त्रिलोचन (1267 – 1400 ) ई. निर्गुण उपासक थे |
      सके बाद 14 वीं. सदी में निर्गुण संप्रदाय का जन्म हुआ | इस सदी में बुद्ध धर्म के उपदेश प्रत्यक्ष रूप में विधमान नहीं था | किन्तु वह कहावातों , लोकोत्तियों के रूप में सीख के रूप में जनता में चल रहा था | जहाँ ज्ञान का दीप जला वहीँ अंधियारा हो गया | अब भारत का प्रकाश विदेशों में चमकने रहा था | इस समय संत कबीर , संत रैदास मीरा बाई , सदना , ने निर्गुण संप्रदाय की कमान संभाली | हालाँकि ये युद्ध धर्म को नहीं जानते थे , किन्तु संत कबीर 84 सिद्धों का इतिहास जानते थे | संत रैदास और कबीर ने कहावतें , जनश्रुतियों के माध्यम से प्रचलित कुछ शिक्षाओं को अपनी वाणियों में ढालकर जनता तक पहुँचाया |जैसे नाथ पंथी साधकों ने काठी उपदेशों को आसानी से ग्रहा बनाने के लिए जिस प्रतीक पद्धति को अपनाया | जैसे ही संत रैदास और कबीर आदि संतों ने भी अपनाया था | अब संत  रैदास का जीवन और दर्शन अगले अध्य्ययों में प्रस्तुत किया जायेगा

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